कुप्रथाओं और अंधविश्वास पर तीखा प्रहार करने वाले समाज सुधारक महात्मा ज्योतिबा फुले की जिंदगी को एक फिल्म में ढालना बहुत ही मुश्किल काम है। निर्देशक अनंत महादेवन ने इस कठिन काम को कर दिखाया है। वैसे फिल्म का ट्रेलर जब 10 अप्रैल को रिलीज हुआ तभी से मूवी चर्चा में रही। ट्रेलर आते ही मनुवादी तिलमिला उठे। महाराष्ट्र के कुछ ब्राम्हणों ने इसका विरोध किया और इसे अपना अपमान बताया। जिस प्रकार फुले की किताब ‘गुलामगिरी’ ने मनुवादियों में उथलपुथल मचा दी थी उसी प्रकार ‘फुले’ फिल्म ने भी ब्राम्हणों में घबराहट पैदा कर दी।
यह मूवी महात्मा फुले की जयंती पर 11 अप्रैल को रिलीज होने वाली थी, लेकिन सेंसर बोर्ड ने इसको स्थगित कर दी और कुछ सीन और शब्दों पर कैंची भी चला दी। इसके बाद आज यह फिल्म रिलीज हो गई, लेकिन पूरा छत्तीसगढ़ के सिनेमाघरों और मल्टीप्लेक्स में इसको कहीं नहीं लगाया गया है। मात्र प्रदेश की राजधानी रायपुर में दो जगहों पर ही एक-दो शो ही दिखाया जा रहा है। जहां यह फिल्म लगी है वहां इसका ठीक से पोस्टर भी नहीं लगाया गया है, जबकि बाकी फिल्मों का और आने वाली मूवियों के बड़े-बड़े फ्लैस लगाए गए हैं। इससे स्पष्ट है कि सिनेमाघरों के मनुवादी संचालक इस फिल्म के साथ भी अछूत जैसा व्यवहार कर रहे हैं।
फिल्म में अभिनेता प्रतीक गांधी ने ज्योतिबा फुले का रोल बखूबी निभाया और एक्ट्रेस पत्रलेखा ने ज्योतिबा की जीवनसंगिनी सावित्री बाई फुले का किरदार पर चार चांद लगा दिया है। फिल्म का हर डायलॉग पर कोई न कोई सामाजिक संदेश है। ज्योतिबा फुले कहते हैं कि जो तर्क के सामने नहीं टिक सकता वहीं पाखंड है। ज्योतिबा फुले ने हर पाखंड, अंधविश्वास और रूढ़िवाद पर जबरदस्त प्रहार किया है और इस काम में उनकी पत्नी सावित्री बाई फुले ने भी जी जान लगाकर मदद की है।
जब देशभर में जात-पात, छुआ-छूत, भेदभाव और पाखंड व्याप्त था उस दौर में ब्राह्म्णवादियों को चुनौती देने के लिए महान समाज सुधारक ज्योतिबा फुले पूरी ताकत के साथ सामने आए। उन्होंने लड़कियों को शिक्षित करने का बीड़ा उठाया और पुणे में बालिकाओं के लिए पहला स्कूल खोला। शिक्षण के काम में उनकी पत्नी सावित्री बाई फुले ने हाथ बटाया और देश की पहली महिला शिक्षिका कहलाई। सावित्री फुले के साथ उनकी सहेली फातिमा शेख ने भी लड़कियों को शिक्षित करने में बड़ी भूमिका निभाई। तालीम देने पर मौलवियों ने फातिमा को जान से मारने की धमकी दी फिर भी हार नहीं मानी।
उस समय लड़कियों का पढ़ना और महिलाओं का पढ़ाना धर्म के खिलाफ समझा जाता था। ब्राह्मण इसे पाप कहते थे। जब सावित्री बाई फुले बच्चियों को पढ़ाने के लिए स्कूल जाती थी तो उन्हें एक और साड़ी साथ लेकर चलना पड़ता था। क्योंकि रस्ते पर ब्राह्मण गोबर फेंकर जलील करते थे। धर्म के खिलाफ चलने की बात कहकर मनुवादियों ने ज्योतिबा फुले और उनके परिवार को बहुत प्रताड़ित किया। फुले को अपना घर भी छोड़ना पड़ा। ब्राह्मणों ने ज्योतिबा फुले पर जानलेवा हमला भी करवाया। इसके बावजूद भी ज्योतिबा फुले ने हार नहीं माना और एक स्कूल की जगह 24 नए स्कूल खोले और समाज में ज्ञान की मशाल जलाई।
फिल्म में ज्योतिबा फुले और उनकी पत्नी सावित्री बाई फुले का दाम्पत्य जीवन को भी बेहतरीन ढंग से फिल्माया गया है। दुख भरी राह पर भी सावित्री बाई फुले अपने पति के साथ मिलकर पूरा समाज से कैसे लड़ लेती हैं। दोनों ने सामाजिक क्रांति के लिए ताउम्र कोशिश की। ज्योतिबा फुले ने ब्राह्मणों की काल्पनिक कहानियों की पोल खोलने के लिए ‘गुलामगिरी’ किताब की रचना की और सत्य शोधक समाज का निर्माण किया। उन्होंने कहा कि यह युद्ध नहीं महायुद्ध है और यह तब तक चलता रहेगा जब तक सब इंसान को बराबरी का दर्जा नहीं मिल जाता।